दीपावली.... दिवाली ...बग्वाल ...
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दीपावली.... दिवाली ...बग्वाल ...
उत्तराखंड देवभूमि के पर्वतीय अंचल में पंचकल्याणी पर्व को मनाने का निराला ही अंदाज
है। यहां दीपोत्सव कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी से शुरू होकर कार्तिक शुक्ल
एकादशी को विराम लेता है। इसीलिए इस त्योहार को इगास-बग्वाल कहा गया। भैलो
परंपरा दीपावली (बड़ी बग्वाल) का मुख्य आकर्षण है।
कार्तिक अमावस्या की रात भैलो (बेलो) खेलने की परंपरा पहाड़ में सदियों
पुरानी है, जिसे अवमूल्यन के इस दौर में भी यत्र-तत्र देखा जा सकता है।
बेलो पेड़ की छाल से तैयार की गई रस्सी को कहते हंै, जिसमें निश्चित अंतराल
पर छिल्ले (चीड़ की लकडि़यां) फंसाई जाती हैं। फिर गांव के सभी लोग किसी
ऊंचे एवं सुरक्षित स्थान पर इकट्ठा होते हैं, जहां पांच से सात की संख्या
में तैयार बेलो में फंसी लकडि़यों के दोनों छोरों पर आग लगा दी जाती है।
फिर ग्रामीण बेलो के दोनों छोर पकड़कर उसे अपने सिर के ऊपर से घुमाते हुए
नृत्य करते हैं। इसे भैलो खेलना कहा जाता है।
इसके पीछे धारणा यह है कि मां लक्ष्मी उनके आरिष्टों का निवारण करें।
आचार्य संतोष खंडूड़ी बताते हैं कि गांव की खुशहाली और सुख-समृद्धि के लिए
बेलो को गांव के चारों ओर भी घुमाया जाता है। कई गांवों में भीमल के
छिल्लों को जलाकर ग्रामीण समूह नृत्य करते हैं। यह भी भैलो का ही एक रूप
है।घर में तरह तरह के पकवान बनते हैं जैसे सवाली और पपड़ी तो मुख्या है फिर खूब नाते रिश्ते दार आते हैं बड़ा ही हर्ष और उल्लाश का वातावरण रहता है इसके अलावा दीपावली पर उरख्याली (ओखली), गंज्याली (धान कूटने का
पारंपरिक यंत्र), धारा-मंगरों, धार, क्षेत्रपाल, ग्राम्य एवं स्थान देवता
की पूजा भी होती है।
इससे पहले धनतेरस पर गाय को अन्न का पहला ग्रास (गो ग्रास) देकर उसकी पूजा
होती है और फिर घर के सभी लोग गऊ पूड़ी का भोजन करते हैं। जबकि, छोटी
बग्वाल (नरक चतुर्दशी) को घर-आंगन की साफ-सफाई कर चौखट (द्वार) की पूजा
होती है। उस पर शुभ-लाभ अथवा स्वास्तिक अंकित किया जाता है। दीपावली का
अगला दिन पड़वा गोवर्द्धन पूजा के नाम है। इस दिन प्रकृति के संरक्षण के
निमित्त गो, वृक्ष, पर्वत व नदी की पूजा की जाती है।
बग्वाल के तीसरे दिन पड़ने वाला भैयादूज का पर्व भाई-बहन के स्नेह का
प्रतीक है। भाई इस दिन बहन के घर जाता है और बहन उसका टीका कर उसे मिष्ठान
खिलाती है।और इस दिन को बल्दराज भी कहा जाता है बैलों और गाय के लिए अच्छा सा खाना बनाया जाता है
उनको फूलों की माला पहनाई जाती है उनके पैर धुले जाते है और दिन भर उनकी सेवक की जाती है
यहाँ तक की उनको जंगल में चुगने के लिए भी नहीं ले जाते
कहते हैं कि इस दिन है यमलोक के भी द्वार बंद रहते हैं।
और एक विशेष बात और इकादश के दिन एगाश मनाई जाती है
अमावश के ठीक ११ दिन बाद इसको हम तीसरी दिवाली भी कहते हैं [ सुभ दीपावली
है। यहां दीपोत्सव कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी से शुरू होकर कार्तिक शुक्ल
एकादशी को विराम लेता है। इसीलिए इस त्योहार को इगास-बग्वाल कहा गया। भैलो
परंपरा दीपावली (बड़ी बग्वाल) का मुख्य आकर्षण है।
कार्तिक अमावस्या की रात भैलो (बेलो) खेलने की परंपरा पहाड़ में सदियों
पुरानी है, जिसे अवमूल्यन के इस दौर में भी यत्र-तत्र देखा जा सकता है।
बेलो पेड़ की छाल से तैयार की गई रस्सी को कहते हंै, जिसमें निश्चित अंतराल
पर छिल्ले (चीड़ की लकडि़यां) फंसाई जाती हैं। फिर गांव के सभी लोग किसी
ऊंचे एवं सुरक्षित स्थान पर इकट्ठा होते हैं, जहां पांच से सात की संख्या
में तैयार बेलो में फंसी लकडि़यों के दोनों छोरों पर आग लगा दी जाती है।
फिर ग्रामीण बेलो के दोनों छोर पकड़कर उसे अपने सिर के ऊपर से घुमाते हुए
नृत्य करते हैं। इसे भैलो खेलना कहा जाता है।
इसके पीछे धारणा यह है कि मां लक्ष्मी उनके आरिष्टों का निवारण करें।
आचार्य संतोष खंडूड़ी बताते हैं कि गांव की खुशहाली और सुख-समृद्धि के लिए
बेलो को गांव के चारों ओर भी घुमाया जाता है। कई गांवों में भीमल के
छिल्लों को जलाकर ग्रामीण समूह नृत्य करते हैं। यह भी भैलो का ही एक रूप
है।घर में तरह तरह के पकवान बनते हैं जैसे सवाली और पपड़ी तो मुख्या है फिर खूब नाते रिश्ते दार आते हैं बड़ा ही हर्ष और उल्लाश का वातावरण रहता है इसके अलावा दीपावली पर उरख्याली (ओखली), गंज्याली (धान कूटने का
पारंपरिक यंत्र), धारा-मंगरों, धार, क्षेत्रपाल, ग्राम्य एवं स्थान देवता
की पूजा भी होती है।
इससे पहले धनतेरस पर गाय को अन्न का पहला ग्रास (गो ग्रास) देकर उसकी पूजा
होती है और फिर घर के सभी लोग गऊ पूड़ी का भोजन करते हैं। जबकि, छोटी
बग्वाल (नरक चतुर्दशी) को घर-आंगन की साफ-सफाई कर चौखट (द्वार) की पूजा
होती है। उस पर शुभ-लाभ अथवा स्वास्तिक अंकित किया जाता है। दीपावली का
अगला दिन पड़वा गोवर्द्धन पूजा के नाम है। इस दिन प्रकृति के संरक्षण के
निमित्त गो, वृक्ष, पर्वत व नदी की पूजा की जाती है।
बग्वाल के तीसरे दिन पड़ने वाला भैयादूज का पर्व भाई-बहन के स्नेह का
प्रतीक है। भाई इस दिन बहन के घर जाता है और बहन उसका टीका कर उसे मिष्ठान
खिलाती है।और इस दिन को बल्दराज भी कहा जाता है बैलों और गाय के लिए अच्छा सा खाना बनाया जाता है
उनको फूलों की माला पहनाई जाती है उनके पैर धुले जाते है और दिन भर उनकी सेवक की जाती है
यहाँ तक की उनको जंगल में चुगने के लिए भी नहीं ले जाते
कहते हैं कि इस दिन है यमलोक के भी द्वार बंद रहते हैं।
और एक विशेष बात और इकादश के दिन एगाश मनाई जाती है
अमावश के ठीक ११ दिन बाद इसको हम तीसरी दिवाली भी कहते हैं [ सुभ दीपावली
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